जहाँ जहाँ पर नाम तुम्हारा होना था
वहाँ वहाँ पर,
अब भी रिक्त स्थान पड़ा है!
महलों में रहने वाले से पहरों तक
फूलों की नदियों की बातें होती थीं
धरती की गति धीरे से बढ़ जाती थी
पल भर में सदियों की बातें होती थीं
जहाँ बैठते थे वह पुल का कोना था
वह कोना तो
अब भी है , सुनसान पड़ा है !
वह शीशम जिस पर दो नाम उकेरे थे
नहीं रहा , वे नाम न कोई पढ़ता है
उसे सुना है कोई बढ़ई काट ले गया
वह उससे सिन्दूरदानियाँ गढ़ता है
पता नहीं सुनकर हँसना या रोना था
मन जाने क्यों
यह सुनकर हैरान पड़ा है !
अब जब भी उस ओर कभी मैं जाता हूँ
मुझ पर बीती हुयी कथाएं हँसती हैं
वैसी ही दुनिया है कुछ भी नहीं घटा
अब भी सबको क्रूर प्रथाएं डसती हैं
हर मृग को पैरों से पर्वत ढोना था
हर मृग के
पीछे ही कोई बान पड़ा है !
----ज्ञानप्रकाश आकुल