कुछ यूं बदले अपने
जैसे शाम हुई हो
शाम ने अंधेरा किया
पर फिर उजाला भी हुआ,
लेकिन अपने
कुछ यूं बदले
कि अंधेरा तो हुआ
पर फिर उजाला नहीं हुआ ।
इतना बदलेंगे अपने
अंधेरा होगा उजाला नहीं ,
ये सोचा ना था हमने।
कुछ यूं कुचला
मेरे आत्मसम्मान को
अपनों ने
जैसे कुचला हो
चींटी को हाथी ने,
कुछ यूं
कोशिश की बचने की
अपनों के जाल से
जैसे की हो कोशिश
मछली ने बचने की
मछुआरे के जाल से।
कुछ यूं तड़पी मैं
अपने आत्मसम्मान के लिए ,
जैसे तड़पी हो
मछली पानी के लिए।
कुछ यूं तड़पी मैं
अपनी आजादी के लिए ,
जैसे तड़पा हो तोता
अपनी स्वतंत्रता के लिए।
कुछ यूं बदले अपने
जैसे शाम हुई हो ,
शाम ने अंधेरा किया
पर फिर उजाला हुआ ।
लेकिन अपने
कुछ यूं बदले
कि अंधेरा तो हुआ
पर फिर उजाला नहीं हुआ।
-रीना कुमारी प्रजापत